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تفسير صفى

سورة البقرة

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سورة آل عمران

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سورة النساء

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سورة الاعراف

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سورة يوسف

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سورة الأنبياء

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سورة الشعراء

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سورة النمل

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سورة القصص

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سورة الأحزاب

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تفسير صفى


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تفسير صفى، ص: 9

سورة الفاتحة

[سوره الفاتحة (1): آيه 1]

بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمنِ الرَّحِيمِ (1)

بنام خداوند بخشنده مهربان (1)

از پى تفسير قرآن مجيد

باشد از حق عمر و توفيقم اميد

تا بشكر آنكه دادم نطق و كام‏

معنى قرآن بنظم آرم تمام‏

ابتدا از نام خويش اندر كتاب‏

با رسول رحمت آمد در خطاب‏

باب گنج علم خود ذات قديم‏

كرد بسم اللَّه رحمن الرحيم‏

باب رحمت را بخلقان كرد باز

تا برحمت سوى او گيرند ساز

اين اشارت بود يعنى در سبب‏

رحمت او سابق آمد بر غضب‏

بهر شرح اين سه نام با نظام‏

مر صفى آمد بگفتار و كلام‏

سابق از ايجاد كل ممكنات‏

كنز مخفى بود آن سلطان ذات‏

هستى او بود در عين كمون‏

ز اسم و رسم و شرط و بيشرطى برون‏

گويم از هستى بيانى در نخست‏

تا بيابى ره بگفتارم درست‏

دانش هستى بود باب سراى‏

فهم هستى كن ز در آن گه دراى‏

گر ندارى ره بتحقيق وجود

ديگر از تفسير و تأويلت چه سود؟

پاى ادراكت بود همواره لنگ‏

پس بحبل هستى اول زن تو چنگ‏

ذات بارى هستى مطلق بود

اسم و وصف از ذات او مشتق بود

هستى مطلق بود ذات الاحد

اندر آن هستى نگنجد وصف و حد

مطلق از شرطست و پاك از چند و چون‏

وز شئون شرط و بيشرطى برون‏

قيد و اطلاقست دور از حضرتش‏

برتر است از لا بشيئى رفعتش‏

نيست او را هيچ شرطى در وجود

نك بهستى هم چنان باشد كه بود

هستى ديگر كه ظل ذات اوست‏

در تجلى اولين آيات اوست‏

موج اول باشد از درياى ذات‏

شد مسمى او باسماء و صفات‏

بحر اللهيت آمد چون بموج‏

خلق از آن گشتند صادر فوج فوج‏

در مقام علم عين ممكنات‏

سر بسر گشتند ثابت يا ثقات‏

عقل اول گشت پيدا در وجود

وز پى تعظيم حق اندر سجود

نفس و افلاك و عناصر روح و جسم‏

جمله شد موجود بر هر رسم و اسم‏

شمس رحمانيتش افكند ظل‏

هر وجودى شد بحدى مستقل‏

بحر رحمت كشت خود را داد آب‏

گشت هر شيئى ز فيضش كامياب‏

معنى رحمن على العرش استوى‏

اين بود گر دارى از معنى نوا

خلق اشيا جمله در شش روز كرد

روز خلق از شش جهت فيروز كرد

گر تو را گويد كس از وسواس و شك‏

روز و شب باشد ز مقدار فلك‏

اندر آن حضرت نه شب بود و نه روز

بد بهارى بى‏خريف و بى‏تموز

پس مراد از خلقت شش روز چيست؟

كاندر آنجا شب نباشد روز نيست‏

كو مراد از ستّه باشد شش مقام‏

كاندر آن شش رتبه شد خلقت تمام‏

رتبه اول شد اسماء و صفات‏

ثانى اعيان تمام ممكنات‏

سيّمين جبروت و رابع در فتوح‏

هست ملكوت ار به تن دار تو روح‏

رتبه پنجم مثال آمد باسم‏

در ششم ملك شهود اعنى كه جسم‏

از بيان ستّه مقصود اين شش است‏

شمس حق زين شش جهت در تابش است‏

نكته بكر خوش روحانييى‏

با تو گويم گر بفهمم ارزانى‏يى‏

هو كه باشد نام آن ذات الاحد

يازده باشد اگر دانى عدد

شش برابر چون يكى باده شود

ذات مطلق آيد و اللَّه شود

مظهر اللَّه عين خاتمست‏

كو بعالم قطب و جان عالم است‏

هستى كون و مكان ز انعام اوست‏

احمد اندر دور هستى نام اوست‏

تفسير صفى، ص: 10

فيض رحمانى بر اشيا شد چو تام‏

گفت از فيض رحيمى بر كرام‏

فيض رحمانى بر اشيا شد عميم‏

فيض خاص احمد بود يعنى رحيم‏

رحمت رحمانيش بر ممكنات‏

فيض هستى داد هر جا يا ثقات‏

رحمت خاص رحيمى بر خواص‏

يافت در قوس صعودى اختصاص‏

مجملى بود اين ز شرح بسمله‏

كن بتفصيلش زمانى حوصله‏

[سوره الفاتحة (1): آيات 2 تا 7]

الْحَمْدُ لِلَّهِ رَبِّ الْعالَمِينَ (2) الرَّحْمنِ الرَّحِيمِ (3) مالِكِ يَوْمِ الدِّينِ (4) إِيَّاكَ نَعْبُدُ وَ إِيَّاكَ نَسْتَعِينُ (5) اهْدِنَا الصِّراطَ الْمُسْتَقِيمَ (6)

صِراطَ الَّذِينَ أَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ غَيْرِ الْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَ لا الضَّالِّينَ (7)

ستايش مر خدايراست پروردگار جهانيان (2)

بخشاينده مهربان (3)

پادشاه روز جزا (4)

ترا ميپرستم و از تو طلب يارى ميكنم (5)

هدايت كن ما را براه راست (6)

راه آنان كه انعام كرده‏اى بر ايشان نه راه آنان كه خشم گرفته بر ايشان و نه گمراهان (7)

از فيوض عام و خاصش در نمود

حمد او گويند ذرات وجود

عين حمد اوست بود ممكنات‏

ظاهر از بودش وجود ممكنات‏

حمد او هر يك ز موجودات او

گويد از تكوين خود بر ذات او

گر كسى حمدش كند با انتقال‏

در مقام بندگى يابد كمال‏

از پى فيض رحيمى در رشاد

حمد خود آموخت هم او بر عباد

بعد بسم اللَّه بخير المرسلين‏

حمد للَّه گفت رب العالمين‏

تا چنان كو كرد حمد خود بيان‏

حمد او گويند جمله انس و جان‏

اى نبى رحمت اندر حضرتم‏

باش رهبر خلق را از رحمتم‏

رحمت عامم بود ايجاد خلق‏

رحمت خاصم رسول پاك دلق‏

نكته‏اى در حمد خاصش مختفى است‏

وان تولا بر نبى و بر و ليست‏

آنكه اشيا را بهستى علتست‏

باعث ايجاد خلق از رحمت است‏

حمد موجد بر خلايق واجبست‏

كو برحمت بر خلايق واهبست‏

حمد عارف بر جمال و ياد اوست‏

بيخبر از عالم و ايجاد اوست‏

حمد او باشد بآن حسن و جمال‏

هيچ نايد ما سوايش در خيال‏

هستى عارف رود يك جا ز پيش‏

حمد خود گويد حق اندر ذات خويش‏

حمد خاص الخاص اندر جستجو

اين بود كز نطق او گويى باو

نيست يك مو ما سوايى در نظر

از وجود و بود غيرى بيخبر

حمد خاصان اين بود كارى بياد

حسن خلقت را ز مبدأ تا معاد

بعد آن كار است عالم را چنين‏

رحمت ديگر كند در يوم دين‏

آرى اندر رحمت مخصوصه روى‏

كان رحيمى رحمت است اى نيكخوى‏

حمد عام اينست كارى در نظر

نعمت بيحصر و حد دادگر

سفره گسترد از تو عبد نانى‏يى‏

جان و ايمان داد اگر ربانى‏يى‏

حمد را گفتند ارباب كمال‏

مر ثنا باشد بآن حسن و جمال‏

شه فرستاده است ز استقلال خويش‏

نزد اهل معرفت تمثال خويش‏

با يكى فرمان پر وعد و وعيد

كاين بود باب اطاعت را كليد

آن يكى بيحكم و فرمان داد جان‏

پيش آن تمثال نيكو در زمان‏

عشق آمد نار غيرت بر فروخت‏

هستى عاشق در آن يكباره سوخت‏

و آن دگر تمثال شه ديد و رقم‏

در اطاعت شد نَزَد بيحكم دم‏

بندگى آورد و عجز و اضطرار

يافت از شه آبرو و اعتبار

فارغ از انديشه بيم و اميد

بندگى شه گزيد از عقل و ديد

آن دگر فرمان نبرد از بيش و كم‏

برد ور هم بود از بهر شكم‏

برد فرمان تا كه او را نان دهد

آنچه بر وى بود مقسوم آن دهد

اينچنين عبدى بود مغضوب و ضال‏

نه بعقل او ره سپر نز عشق و حال‏

گمرهيها باز باشد مختلف‏

آن يك از راهست گامى منحرف‏

رفته رفته گمرهى افزون بود

تا كه از فرسنگها بيرون بود

روز دين كاسرارها گردد عيان‏

مى‏برافتد پرده از رخسار جان‏

رهرو از گمراه يابد امتياز

باب رحمتها شود بر بنده باز

پيش از آن كز پرده آن سلطان ذات‏

رخ نمايد ظاهر آيد در صفات‏

عشق بر خود داشت اندر ذات خويش‏

روى خود ميديد در مرآت خويش‏

بر ظهور آن جمال دلفروز

بيحجابى كرد عشق پرده سوز

حب ذاتى باعث ايجاد گشت‏

عرش و فرش از جود او بنياد گشت‏

خود مخاطب عشق بر لولاك شد

كو بخلقت باعث افلاك شد

حمل بار عشق چون گرديد عرض‏

پس ابا كردند زان افلاك و ارض‏

عشق افتاد از پى شوريده‏اى‏

رند عيارى، حقيقت ديده‏اى‏

غير آدم هيچ شيئى دل نداشت‏

عرض معنى جز باو حاصل نداشت‏

برد آدم را بزير بار دوست‏

تا كند همدست خود در كار دوست‏

هم ز آدم امتحانها كرد باز

كيست تا از هستى خود پاك باز

بر فناى خويشتن بندد كمر

تاج بدهد يابد از محبوب سر

تا نجويد بد دلى اين راه را

هم نبيند چشم غيرى شاه را

پرده‏ها بربست پيش آن جمال‏

از شعاع غيرت و نور و جلال‏

بيند او را آنكه او چشم ويست‏

در مقام عشق او محكم پى است‏

گويد ار اياك نعبد نستعين‏

كس نباشد در ميان جز شاه دين‏

كى گزارد عشق كامل سير او

تا پرستد وجه او را غير او

پس فنا مستلزم اين بندگيست‏

اندر اين مردن هزاران زندگيست‏

بنده گفتن غير بنده بودن است‏

كاستن جز بر وجود افزودنست‏

بنده آن باشد كه بيند روى او

بندگى او كند بر خوى او

اين عبوديت ز عشق است و نياز

طاعت بى‏عشق مكر است و مجاز

عشق هم نايد بدل بيعلتى‏

علت آن باشد كه بينى طلعتى‏

طلعت حق احمد است و حيدر است‏

يا ولى‏يى كاين دو تن را مظهر است‏

مظهريت هم نشان احمد است‏

كاندر آدم مختفى از ايزد است‏

بو البشر با اين نشان مسجود شد

و ان بليس از ترك او مردود شد

چون نبودش عشق استكبار كرد

عجب را استيزه بر دلدار كرد

با خود انديشيد ابليس لعين‏

كز چه من خائن شدم آدم امين‏

گفت حق آدم همه عجز است و درد

تو سراپا عجب و انكار و نبرد

تفسير صفى، ص: 11

خواهد او از يك غلط صد عذر و عفو

تو كنى در هر نظر صد ظلم و سهو

سجده او گر نمايى بنده‏اى‏

بر عناياتم چو او زيبنده‏اى‏

باز بشنو از صراط المستقيم‏

كوست از ما راست تا ذات قديم‏

هست ما را تا بحق راهى دقيق‏

عارفان خوانند آن ره را طريق‏

همچو خطى در ميان نقطتين‏

نقطتين‏اش حق و خلق آمد بعين‏

در ميان هر دو نقطه، اى حكيم‏

هست يك خط مستوى و مستقيم‏

خواند او را مر محقق راه راست‏

راستى بايد ز حق در راه خواست‏

راستى، ثابت در اين ره بودن است‏

راست ره را همچو ره پيمودنست‏

در صراط راست گر معوج روى‏

منحرف گردى ز ره خارج شوى‏

آن گروهى كز ره اندر منزلند

اندر انعمت عليهم داخلند

راه پيمودن بوفق عقل و شرع‏

حفظ آداب و سنن در اصل و فرع‏

تا بآخر كان وصول است و لقا

بنده را سازد ز هر قيدى رها

هر مقامى نعمتى و جنتى است‏

عارفان را مژده‏اى بر رحمتى است‏

رحمت حق محسنين را حاصل است‏

محسن اندر منزل از ره واصل است‏

اهدنا گفتن سزاوار كرام‏

ز اولين گام است تا آخر مقام‏

زين دعا ره بر تو واضحتر شود

در سلوكت عون حق رهبر شود

در صراط المستقيم اين اهدنا

ميبرد بى‏انحرافت تا خدا

انحرافت از صراط اعتدال‏

بر يمين و بر يسار آمد ضلال‏

شرح اين اجمال اگر خواهى يكى‏

رو فرو در بحر تفسير اندكى‏

يا رب اين ره بر «صفى» كن مستقيم‏

تا بآخر بى ز لغزش بى ز بيم‏

تا صراط مستقيم طى شود

دل به امداد تو محكم پى شود

از پس سبع المثانى در كتاب‏

هم برحمت كرد ديگر فتح باب‏

سورة البقرة

[سوره البقرة (2): آيات 1 تا 4]

بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمنِ الرَّحِيمِ‏

الم (1) ذلِكَ الْكِتابُ لا رَيْبَ فِيهِ هُدىً لِلْمُتَّقِينَ (2) الَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِالْغَيْبِ وَ يُقِيمُونَ الصَّلاةَ وَ مِمَّا رَزَقْناهُمْ يُنْفِقُونَ (3) وَ الَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِما أُنْزِلَ إِلَيْكَ وَ ما أُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ وَ بِالْآخِرَةِ هُمْ يُوقِنُونَ (4)

بنام خداى بخشاينده مهربان‏

اين است كتابى كه نيست شكى در آن راهنماست مر پرهيزكاران را (2)

آنان كه ميگروند به پنهانى و بپا ميدارند نماز را و از آنچه روزى كرديم ايشان را نفقه ميكنند (3)

و آنان كه ميگروند بآنچه فرو فرستاده شد بسوى تو و آنچه فرو فرستاده شد پيش از تو و به آخرت، ايشانند يقين دارندگان (4)

هستى مطلق ز غيب ذات خويش‏

خواست گردد جلوه‏گر ز آيات خويش‏

از احد كاطلاق ذات اللَّه بد

گشت ظاهر در صفات اللَّه شد

صورت اللَّه گر دانى مقام‏

شد محمد «ص» مظهر جامع بنام‏

ممكنات از بحر او مانند موج‏

منشعب شد فرقه فرقه، فوج فوج‏

زان سبب موصوف بر لولاك شد

باعث ايجاد آب و خاك شد

كرد اشارت از الف وز لام و ميم‏

زين سه رتبه بعد رحمن الرّحيم‏

خود الف بود آنكه آمد لام شد

لامع آن شمس الاحد ز اكرام شد

لام را باشد نهايت حرف ميم‏

نيك درياب اين اشارات عظيم‏

زين سه رتبه در كتاب آن سان كه بود

ابتدا فرمود سلطان وجود

از مقامات ثلاث آغاز كرد

باب رحمت بر خلايق باز كرد

تا تو دانى انفس آفاق را

سرّ اين تقييد و آن اطلاق را

از پس سبع المثانى كاندر آن‏

حمد خود آموزد او بر بندگان‏

از الف كرد ابتدا وز لام و ميم‏

تا ز حادث راه يابى بر قديم‏

اين اشارت بر سه رتبه است از وجود

گر مراتب را شناسى با شهود

اول اللَّه است و ثانى جبرئيل‏

عقل فعال اوست از روى دليل‏

منتهى باشد محمد «ص» در نمود

ز آنكه دارد جامعيت در وجود

فيض هستى جبرئيل ذو العطا

ز ابتدا گيرد دهد بر منتها

گفت جمع عالم اينست اى وجيه‏

يا عبادى فاعلموا لا ريب فيه‏

متقين را هست هادى بى ز ريب‏

كاهل ايمانند در معنى بغيب‏

يعنى آگاهند كايات شهود

حاكى از غيب است و خارج در نمود

عالم اعيان كه غيب مطلق است‏

نزد ارباب يقين علم حق است‏

اندر آنجا چون شجر اندر نوات‏

مندرج بودند و مخفى ممكنات‏

چون ز اوصاف كمال آمد ظهور

گشت ظاهر از مقام علم و نور

ظل نورش در عيان ممدود شد

سربسر كون و مكان موجود شد

كون جامع بود انسان در شهود

بهر انسان داد عالم را نمود

هم كند از بهر انسان ذكر غيب‏

مؤمن بالغيب بى‏عيبست و ريب‏

مر يقيمون الصلات‏اند اين گروه‏

ثابت اندر طاعت و تقوى چو كوه‏

رزق خود انفاق بر مسكين كنند

ترك جان در راه شرع و دين كنند

در ره حق نى بتنها نان دهند

چون مقام جهد آيد جان دهند

آنچه نازل بر تو كرديم اى رسول‏

و آنچه بر قبل از تو ز ارباب قبول‏

موقنند آن جمله را بى‏معذرت‏

هم بحشر و بعث و روز آخرت‏

چون برآرند اين ذرارى سر ز خاك‏

حكم آيد بر نجات و بر هلاك‏

زهره شيران بدرّد از نهيب‏

هم شود مخطى هراسان هم مثيب‏

آتش قهر آيد آن ساعت بطوف‏

چشمها بيرون فتد از بيم و خوف‏

بر شفيعان نه زبان ماند نه كام‏

همچو مأموم است در زارى امام‏

نامه‏ها آيد خلايق را بدست‏

زانوى هر كس رود سوى نشست‏

انبيا افتند از خجلت برو

اين منيتها يكى گويد كه كو

فرّ و هنگت را چه كردى اى خسيس‏

كاينچنين گرديده‏اى با غم انيس‏

نامه خود را بخوان چشمى بمال‏

اندرين ثبت است آن افعال و حال‏

چون كه بيند نيست بر جا زنده‏اى‏

در جواب حضرتش گوينده‏اى‏

خاكيان در بحر غم مستهلكند

رفته هستيها سراسر مندكند

با خود آيد در خطاب آن ذات پاك‏

چاره چبود چون كنم با مشت خاك‏

تفسير صفى، ص: 12

هر كرا اين ماجرا باشد يقين‏

باشد از يوم النشورش دل غمين‏

بر سر از فردا كند امروز خاك‏

نالها از دل كشد بس دردناك‏

فارغست از ريب و شك در راه دين‏

داخل اندر زمره اهل يقين‏

بس علامتهاست او را در عمل‏

زان يكى ترك فضولست و امل‏

در جهان بودن نه بر وجه ثبوت‏

اكتفاء كردن بقوت لا يموت‏

بر حيات و موت مختار ار شود

اختيارش موت اندر دم بود

گر بگويم جمله را دل خون شود

و اين كتاب از حمل و نقل افزون شود

[سوره البقرة (2): آيات 5 تا 7]

أُولئِكَ عَلى‏ هُدىً مِنْ رَبِّهِمْ وَ أُولئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ (5) إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا سَواءٌ عَلَيْهِمْ أَ أَنْذَرْتَهُمْ أَمْ لَمْ تُنْذِرْهُمْ لا يُؤْمِنُونَ (6) خَتَمَ اللَّهُ عَلى‏ قُلُوبِهِمْ وَ عَلى‏ سَمْعِهِمْ وَ عَلى‏ أَبْصارِهِمْ غِشاوَةٌ وَ لَهُمْ عَذابٌ عَظِيمٌ (7)

آنها بر هدايتند از پروردگارشان و آنها ايشانند رستگاران (5)

بدرستى كه آنان كه كافر شدند يكسان است بر ايشان خواه بيم داده باشى ايشان را يا بيم نداده باشى كه ايمان نمى‏آورند (6)

مهر نهاد خدا بر دلهاى ايشان و بر گوشهاى ايشان و بر چشمهاى ايشان پرده‏ايست و مر ايشان را عذابى است بزرگ (7)

هم گروهى بر هدايت از ربند

در حساب نفس خود روز و شبند

رستگارانند آزاد از قيود

فارغ از انديشه بود و نبود

تا نگردى رسته، نبوى رستگار

در هدايت نيست پايت استوار

كافران كانذارشان بيسود بود

بودشان بس قيد و اين مشهود بود

گفت زان حق گر كنى انذارشان‏

يا نه يكسانست در انظارشان‏

ز آنكه دور از نور و ايمانند و هوش‏

مهرشان بنهاده حق بر چشم و گوش‏

معنى مهر اين بود بر گوش و دل‏

كاين گروهند آيت اسم مضلّ‏

هر يك از اسماء حقرا مظهريست‏

مظهر هر يك جدا از ديگريست‏

كاملان در ظلّ اسم كاملند

كافران از اسم مؤمن غافلند

دعوت كلّ رسل بر عامه بود

مؤمن آن شد ليك ايمان جامه بود

فهم اين معنى است مخصوص خواص‏

كاسم را بر شي‏ء چبود وجه خاص‏

گر بيان سازم بلغزد فهم عام‏

پخته ما را كنند اين عامه خام‏

پرده باشد آن گره را بر بصر

تا نبينند آنچه خير است آنچه شر

پرده بودن بر بصر باشد عذاب‏

سختتر آن را كه آمد رد باب‏

[سوره البقرة (2): آيات 8 تا 10]

وَ مِنَ النَّاسِ مَنْ يَقُولُ آمَنَّا بِاللَّهِ وَ بِالْيَوْمِ الْآخِرِ وَ ما هُمْ بِمُؤْمِنِينَ (8) يُخادِعُونَ اللَّهَ وَ الَّذِينَ آمَنُوا وَ ما يَخْدَعُونَ إِلاَّ أَنْفُسَهُمْ وَ ما يَشْعُرُونَ (9) فِي قُلُوبِهِمْ مَرَضٌ فَزادَهُمُ اللَّهُ مَرَضاً وَ لَهُمْ عَذابٌ أَلِيمٌ بِما كانُوا يَكْذِبُونَ (10)

و از مردمان باشند كسانى كه ميگويند گرويديم بخدا و بروز آخر و نيستند ايشان مر گروندگان (8)

فريب ميدهند خدا را و آنان كه گرويدند و فريب نميدهند مگر خودهاشان را و نميدانند (9)

در دلهاشان مرض است پس افزود ايشان را خدا مرض و مر ايشان را عذابى است دردناك بآنچه بودند كه تكذيب ميكردند (10)

فرقه‏اى ديگر نه بر رسم وفاق‏

دعوى ايمان نمايند از نفاق‏

در خديعت با خدا و اهل اللهند

ره بخود رايى روند و گمره‏اند

خدعه با حق كردن از بيدانشى است‏

آن خديعت جز بنفس خويش نيست‏

خدعه با حق غير اللَّه كى كند

روز آخر خورده‏ها را قى كند

هستشان در دل مرضها از غرض‏

زان حق افزايد در آن دلها مرض‏

بر مرضهاى نهان لا يشعرند

بر عذابى سخت ز آن رو در خورند

آنچه را تكذيب اندر دل كنند

اين عذاب از بهر آن حاصل كنند

[سوره البقرة (2): آيات 11 تا 15]

وَ إِذا قِيلَ لَهُمْ لا تُفْسِدُوا فِي الْأَرْضِ قالُوا إِنَّما نَحْنُ مُصْلِحُونَ (11) أَلا إِنَّهُمْ هُمُ الْمُفْسِدُونَ وَ لكِنْ لا يَشْعُرُونَ (12) وَ إِذا قِيلَ لَهُمْ آمِنُوا كَما آمَنَ النَّاسُ قالُوا أَ نُؤْمِنُ كَما آمَنَ السُّفَهاءُ أَلا إِنَّهُمْ هُمُ السُّفَهاءُ وَ لكِنْ لا يَعْلَمُونَ (13) وَ إِذا لَقُوا الَّذِينَ آمَنُوا قالُوا آمَنَّا وَ إِذا خَلَوْا إِلى‏ شَياطِينِهِمْ قالُوا إِنَّا مَعَكُمْ إِنَّما نَحْنُ مُسْتَهْزِؤُنَ (14) اللَّهُ يَسْتَهْزِئُ بِهِمْ وَ يَمُدُّهُمْ فِي طُغْيانِهِمْ يَعْمَهُونَ (15)

و چون گفته شود مر ايشان را كه تباهى نكنيد در زمين گفتند جز اين نيست كه ما باصلاح آورندگانيم (11)

آگاه باشيد كه ايشان فساد كننده‏اند و ليكن نميدانند (12)

و چون گفته شود مر ايشان را كه بگرويد چنان كه گرويدند مردمان، گفتند آيا بگرويم چنان كه بگرويدند بيخردان؟ آگاه باش كه ايشانند بيخردان و ليكن نميدانند (13)

و چون ملاقات كنند آنان كه ايمان آوردند، گفتند گرويديم و چون داخل شوند بسوى شيطانهاشان گفتند بدرستى كه ما با شماييم، جز اين نيست كه ما استهزا كنندگانيم (14)

، خدا استهزا ميكند بايشان و وا ميگذارد ايشان را در زياده‏رويشان كور و حيرانند (15)

تفسير صفى، ص: 13

[سوره البقرة (2): آيه 16]

أُولئِكَ الَّذِينَ اشْتَرَوُا الضَّلالَةَ بِالْهُدى‏ فَما رَبِحَتْ تِجارَتُهُمْ وَ ما كانُوا مُهْتَدِينَ (16)

آنها كسانى‏اند كه خريدند گمراهى را بهدايت، پس سود نكرد تجارتشان و نبودند راه يافتگان (16)

گفته شد بر آن گروه بيمراد

درگذاريد اين فضولى وين فساد

در جواب اهل حق گفتند زود

نيست ما را جز صلاح اندر وجود

مصلحيم و نيست حاجت وعظ و پند

خود نه مصلح كابلهند و مفسدند

چون كه ايمان خواستند از آن گروه‏

آمدند از عرض ايمان بر ستوه‏

جمله گفتند از چه فعل دون كنيم‏

خويش را جزء سفيهان چون كنيم؟

چون كنيم انكار كايشان كرده‏اند

از سفاهت ميل ايمان كرده‏اند

ميندانند اينكه خود بيحاصلند

بس فزون از حد سفيه و جاهلند

ور كه گويند از نفاق و اضطرار

مؤمنانرا با شما هستيم يار

مؤمنيم و با شما هم پيشه‏ايم‏

در ره ايمان بيك انديشه‏ايم‏

با شياطين باز چون خلوت كنند

پيش شيطانهايشان خدمت كنند

كه ز جان ما با شما ياريم و دوست‏

با محمد «ص» دشمن اندر مغز و پوست‏

همرهى با مؤمنان گر ما كنيم‏

نيست ايمان دم باستهزا زنيم‏

حق بر ايشان نيز استهزا كند

تا كه در طغيانشان رسوا كند

سر گران از نخوت نادانيند

غوطه‏ور در لجه حيرانيند

مر ضلالت را خريدند از غلو

زين تجارت نيست خيرى يكتسو

[سوره البقرة (2): آيات 17 تا 22]

مَثَلُهُمْ كَمَثَلِ الَّذِي اسْتَوْقَدَ ناراً فَلَمَّا أَضاءَتْ ما حَوْلَهُ ذَهَبَ اللَّهُ بِنُورِهِمْ وَ تَرَكَهُمْ فِي ظُلُماتٍ لا يُبْصِرُونَ (17) صُمٌّ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لا يَرْجِعُونَ (18) أَوْ كَصَيِّبٍ مِنَ السَّماءِ فِيهِ ظُلُماتٌ وَ رَعْدٌ وَ بَرْقٌ يَجْعَلُونَ أَصابِعَهُمْ فِي آذانِهِمْ مِنَ الصَّواعِقِ حَذَرَ الْمَوْتِ وَ اللَّهُ مُحِيطٌ بِالْكافِرِينَ (19) يَكادُ الْبَرْقُ يَخْطَفُ أَبْصارَهُمْ كُلَّما أَضاءَ لَهُمْ مَشَوْا فِيهِ وَ إِذا أَظْلَمَ عَلَيْهِمْ قامُوا وَ لَوْ شاءَ اللَّهُ لَذَهَبَ بِسَمْعِهِمْ وَ أَبْصارِهِمْ إِنَّ اللَّهَ عَلى‏ كُلِّ شَيْ‏ءٍ قَدِيرٌ (20) يا أَيُّهَا النَّاسُ اعْبُدُوا رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُمْ وَ الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ (21)

الَّذِي جَعَلَ لَكُمُ الْأَرْضَ فِراشاً وَ السَّماءَ بِناءً وَ أَنْزَلَ مِنَ السَّماءِ ماءً فَأَخْرَجَ بِهِ مِنَ الثَّمَراتِ رِزْقاً لَكُمْ فَلا تَجْعَلُوا لِلَّهِ أَنْداداً وَ أَنْتُمْ تَعْلَمُونَ (22)

مثل ايشان مانند مثل كسى است كه برافروخت آتش را پس چون روشن كرد آنچه پيرامنش بود برد خدا بروشنائيشان و رها كرد ايشان را در تاريكى‏ها كه نمى‏بينند (17)

كران‏اند، گنگان‏اند، كوران‏اند پس ايشان برنميگردند (18)

يا چون بارانى از آسمان در آن تاريكيها و رعد و برق ميگردانند انگشتهايشان را در گوشهاشان از آوازهاى رعد از بيم مرگ و خدا احاطه كننده است بكافران (19)

نزديك باشد كه برق بر چشمهايشان را هر گاه روشن كند بر ايشان راه روند در آن و چون تاريك سازد بر ايشان بايستند و اگر خواسته بود خدا برده بود بگوشهاشان و چشمهاشان بدرستى كه خدا بر هر چيزى تواناست (20)

اى مردمان بپرستيد پروردگار خود را كه آفريد شما را و كسانى كه پيش از شما بودند تا شايد شما پرهيزكار شويد (21)

آنكه گردانيد براى شما زمين را بساطى و آسمان را بنائى و فرو فرستاد از آسمان آب را پس بيرون آورد بآن از ميوه‏ها روزى را براى شما پس مگردانيد از براى خدا همتايان را و شما ميدانيد (22)

همچو آن كز بهر نور افروخت نار

روشنايى برد زان پروردگار

ترك ايشان كرد و در تاريكيند

زان نميبينند و دور از نيكييند

صم و بكم و عمى گشتند اين حرون‏

گفت از اينمعنى فهم لا يرجعون‏

او كصيب من سما ظلمات فيه‏

رعد و برق افزون در آن تاريك تيه‏

ميكنند انگشت در آذان كه صوت‏

نشنوند از رعدها از بيم موت‏

بيخبر كز قدرت و علم بسيط

حق بجان كافران باشد محيط

بين يكاد البرق يخطف تا چسان‏

ميرساند آن بصرها را زيان‏

ره چو روشن شد بر ايشان ميروند

بر ضلالت تا كه دور از ره شوند

چون شود تاريك گردند از فتن‏

ثابت اندر گمرهى خويشتن‏

ور خدا خواهد برد سمع و بصر

زين گروه كج نهاد كور و كر

كو بود قادر بكل ممكنات‏

ما سوى را كرده محو برد و مات‏

ايّها الناس اعبدوا يعنى كنيد

ز او پرستش كه شما را آفريد

و آنكه بودند از شما خود بيشتر

اوست يعنى خالق نوع بشر

تا شما شايد ز عقل و اختيار

مى‏بپرهيزيد از پروردگار

چون بساط اين ارض را گسترده است‏

وز سپهر اعلا بنايى كرده است‏

آب را از آسمان نازل نمود

هر ثمر روينده ز آب و گل نمود

اين ثمرها زان كشيد از خاك سر

تا كه باشد رزق اين خيل بشر

فقر خود دانيد و استغناى او

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